( तहलका से साभार लिया गया लेख…बताता है कि क्या हैं सोमनाथ होने के मायने )
जो सही लगा वही करने वाले सोमनाथ चटर्जी को ऐसा ही कुछ करने पर सीपीएम ने पार्टी से निष्कासित कर दिया है। चटर्जी की शख्सियत को करीब से जानने का प्रयास कर रहे हैं शांतनु गुहा रे..........
14 वीं शताब्दी में इंग्लैंड के लॉर्ड चांसलर (इंग्लैंड के उच्च सदन हाउस ऑफ लॉर्डस के अध्यक्ष) मोर ने सिद्धांतों को व्यावहारिकता पर तरजीह देते हुए अपने मित्र हेनरी अष्टम की तलाक की याचिका पर सहमति की मुहर लगाने से इनकार कर दिया था। अपने सिद्धांतों की रक्षा की खातिर उन्होंने त्यागपत्र दे दिया, गिरफ्तार हुए और मौत को गले लगा लिया। वर्तमान लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने पिछले कुछ दिनों में जो कुछ किया है सिद्धांतों के लिहाज से कुछ-कुछ मोर की याद दिला देता है। चटर्जी ने मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के उस आदेश को नज़रअंदाज कर दिया जिसमें उन्हें लोकसभा अध्यक्ष पद से इस्तीफा देकर 22 जुलाई को मनमोहन सिंह सरकार के खिलाफ विश्वासमत प्रस्ताव पर वोट डालने के लिए कहा गया था। सवाल ये उठता है कि भारतीय राजनीति की सबसे अनुशासित पार्टी की संस्कृति में आकंठ डूबे इस व्यक्ति को किस चीज़ ने इतना मुखर विद्रोही बना दिया? 79 वर्षीय सोमनाथदा को नज़दीक से जानने वालों के लिए उनकी समझौता न करने वाली छवि कोई नई बात नही है। उनकी अपनी एक मौलिक सोच हैं और इसका आभास उनके साधारण से घर की दीवारों पर देखने से ही मिल जाता है। यहां सिर्फ दो चित्र नज़र आते हैं. एक गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर और दूसरा ज्योति बसु का। स्पष्ट रूप से यही दो लोग उनके आदर्श हैं। मार्क्सवादियों के आदर्श ब्लादिमिर लेनिन, कार्ल मार्क्स या फ्रेडरिक एंगल के उलट उनकी ये पसंद हैरत में डालती है। चुनौती देना शुरुआत से ही उनके चरित्र का हिस्सा रहा है। उनके पिता निर्मलचंद्र, हिंदू महासभा के अध्यक्ष और श्यामा प्रसाद मुखर्जी के विश्वस्त थे। इस पारिवारिक विरासत के बावजूद उन्होंने 1968 में सीपीएम से जुड़ने का फैसला किया। ये उनकी स्वतंत्र सोच का परिचायक था जिसका प्रदर्शन बाद में उन्होंने समय-समय पर किया। 1971 में उन्होंने बोलेपुर से निर्दलीय के रूप में--सीपीएम के समर्थन से--उपचुनाव जीता। ये सीट उनके पिता की मृत्यु हो जाने से खाली हुई थी। इसके बाद वो सीपीएम के टिकट पर अगले नौ लोकसभा चुनाव जीतने में सफल रहे। इस दौरान 1984 में उन्हें सिर्फ एक बार ममता बनर्जी के हाथों हार का मुंह देखना पड़ा। लेकिन सीपीएम से अपने चार दशक लंबे जुड़ाव के बावजूद चटर्जी कभी भी पूरा तरह से पार्टी का हिस्सा नहीं बन सके। वो पार्टी से बर्खास्त किए जाने के वक्त भी पार्टी पोलित ब्यूरो के सदस्य नहीं थे। उन्हें पार्टी की केंद्रीय समिति का सदस्य भी 90 के दशक के अंत में ज्योति बसु के आग्रह पर बनाया गया था। उनसे किसी को नाराज़गी नहीं है लेकिन पार्टी के अंदरूनी सूत्र बताते हैं कि उनकी अलग सोच और खुल के बोलने की आदत परेशानी का कारण बन जाते हैं। 1996 में जब ज्योति बसु प्रधानमंत्री बनने का मौका चूक गए तब उन्होंने तो सिर्फ इतना कहा कि सीपीएम द्वारा उन्हें प्रधानमंत्री न बनने देना एक “ऐतिहासिक भूल” थी। ये कितनी बड़ी भूल थी ये पार्टी के भीतर और मीडिया में हर सुनने की चाह रखने वाले को चटर्जी ने बताया। उन्होंने कहा कि मार्क्सवादियों को अब ‘बैकसीट ड्राइविंग’ बंद कर देनी चाहिए। “बंगाल अब पीछे से राजनीति करने वालों को नहीं झेल सकता।”
अगर उन्होंने पार्टी के कट्टरवादियों और उनकी नियंत्रणवादी प्रवृत्ति की आलोचना की तो किसी मुद्दे पर असहमत होने पर अपने नज़दीकियों को भी नहीं बख्शा। इस बात को जानते हुए भी कि ज्योति बसु कट्टर सीटू(कंफेडरेशन ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियन) नेता थे, सोमनाथ ने जूट मिलों को बंद करवाने के सीटू के तौर तरीके पर खुल कर अपनी नाराज़गी का इज़हार किया। उन्होंने एक बार कहा था, “तालाबंदी आखिरी विकल्प है। इसका सहारा तभी लेना चाहिए जब आपके पास दूसरा कोई विकल्प ही न बचा हो।”ट्रेड यूनियनों के साथ उनके टकराव को भांप कर बसु ने उन्हें पश्चिम बंगाल व्यापार विकास निगम (डब्ल्यूबीआईडीसी) का चेयरमैन बना दिया। उत्साही सोमनाथ तुरंत ही राज्य में निजी निवेश का खाका खींचने लगे। उन्होंने निजी कंपनियों के साथ रिकॉर्ड 100 से ज्यादा समझौतों पर दस्तखत किए। ये अलग बात है कि उनमें से करीब 95 फीसदी असफल रहे क्योंकि चटर्जी की योजनाओं को उनकी पार्टी का ही समर्थन नहीं मिल सका। इनमें से एक योजना कोल इंडिया द्वारा कोलकाता के पूर्वी बाइपास के पास विशाल हॉस्पिटल बनाने की थी, मगर ये शिलान्यास से आगे नहीं बढ़ सकी।
पर इस तरह के प्रतिरोध न तो उनकी एकाग्रता को भंग कर सके और न ही उनकी कोशिशों को। उन्होंने डब्ल्यूबीआईडीसी के अपने सहयोगियों से निराश न होने और देश के शीर्ष उद्योगपतियों के संपर्क में बने रहने को कहा। वो कहते थे, “आपको उन नकारात्मक विचारों का खात्मा करना है जो बाहरी दुनिया के मन में पश्चिम बंगाल के प्रति हैं।” विचारधारा पर कायम रहना और निजी निवेश की आवश्यकता को समझने की क्षमता ही उनकी एकमात्र ताकत नहीं थी। उनकी क़ानूनी प्रतिभा भी देखने योग्य थी। 1984 में पश्चिम बंगाल सरकार की पैरवी करते हुए उन्होंने एक ऐसी ऐतिहासिक जीत दर्ज की, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि न्यायपालिका को देश की चुनाव प्रक्रिया में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। केस का विषय ये था कि क्या मतदाता सूची में नाम न होने की हालत में किसी चुनाव को रोका जा सकता है। चटर्जी ने तर्क दिया कि एक बार शुरू हो जाने के बाद चुनावी प्रक्रिया को रोका नहीं जा सकता और भारत में ये संभव ही नहीं है कि सारे वोटरों के नाम मतदाता सूची में शामिल हों।1984 में पश्चिम बंगाल सरकार की पैरवी करते हुए उन्होंने एक ऐसी ऐतिहासिक जीत दर्ज की, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि न्यायपालिका को देश की चुनाव प्रक्रिया में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। सोमनाथ के विरोधी (मुख्यत: मुख्यमंत्री बुद्धदेब भट्टाचार्य और उद्योगमंत्री निरुपम सेन) कभी भी खुलेआम उनसे मुकाबला नहीं करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने सोमनाथ को हाशिए पर धेकलने का रास्ता चुना। उन्होंने पार्टी में उनकी महत्ता को कम करके बोलेपुर में उन्हें कुछ छोटी-छोटी परियोजना के काम में लगा दिया। चटर्जी ने श्रीनिकेतन और शांतिनिकेतन विकास प्राधिकरण स्थापित करके उसी उत्साह से विकास परियोजनाओं की शुरुआत की जैसा उत्साह उन्होंने राज्य में निजी निवेश को आकर्षित करने के लिए दिखाया था। जब पार्टी ने उनकी आलोचना की और उन्हें कोर्ट में घसीटा गया--वामपंथी लेखिका महाश्वेता देवी ने ये कह कर उन्हें कोर्ट में घसीटा कि वो शांति निकेतन की खोवाई या लाल मिट्टी को एक आवासीय परियोजना की वजह से बर्बाद कर रहे हैं--तो उन्होंने पूरी शिद्दत से केस लड़ा औऱ सुप्रीम कोर्ट ने उनके खिलाफ सारे आरोपों को खारिज कर दिया।
आधारभूत ढांचे के विकास चटर्झी की प्राथमिकताओं की सूची में सबसे ऊपर रहा। बोलेपुर में उन्होंने पश्चिम बंगाल के सबसे बढ़िया गीतांजलि ऑडीटोरियम और एक बेहद आधुनिक स्टेडियम की स्थापना की। वो मज़ाक में कहते थे, “अब अगर आप स्तरीय फुटबॉल खिलाड़ी नहीं पैदा कर पाते हैं तो मुझे दोष मत दीजिएगा।” ये एक साधारण टिप्पणी है लेकिन उनकी स्पष्टवादिता का अंदाज़ा दे देती है। वो जैसा सोचते हैं वैसा करते हैं। अगर लोकसभा अध्यक्ष पद को लें तो यहां वो सीपीएम के प्रत्याशी न होकर सर्वसम्मति से चुने गए थे इसलिए पार्टी व्हिप पर बिना लागलपेट के उनकी सीधी प्रतिक्रिया थी कि इस पद को संभालने का मतलब ये है कि वो पार्टी की राजनीति से परे हैं। वो अपरंपरागत मार्क्सवादी हैं, उनकी ईमानदारी पर किसी को लेशमात्र भी संदेह नहीं है। उनके दोस्त बताते हैं, जब वो 20 अकबर रोड वाले घर में पहुंचे तो उन्हें पता चला कि यहां चाय बिस्किट से लेकर साबुन तक का खर्च लोकसभा के खाते से अदा होता है। “मेरे ख्याल से मैं अपने बाथरूम का खर्च उठा सकता हूं। और मैं अपने मेहमानों के लिए एक कप चाय का खर्च भी उठा सकता हूं,” चटर्जी ने कहा और इसे बंद करवा दिया।
हालांकि लोकसभा अध्यक्ष का उनका कार्यकाल विवादों से अछूता नहीं रहा। 2005 में चटर्जी ये बयान देकर संकट में पड़ गए कि सुप्रीम कोर्ट झारखंड विधानसभा के मामले में आदेश देकर विधायकों के अधिकारों का अतिक्रमण कर रहा है। विपक्ष ने लाभ के पद को मुद्दा बना कर उनके त्यागपत्र की माग की क्योंकि वो शांतिनिकेतन श्रीनिकेतन विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष थे। अपनी विशेष अदा में उन्होंने ये कहकर सारे आरोपों को दरकिनार कर दिया कि वो किसी भी तरह का लाभ नहीं उठा रहे हैं और सारे आरोप निराधार हैं। आज ये गुस्ताख, मार्क्सवादी अपनी ही पार्टी के कट्टरपंथियों के निशाने पर है, जबकि इसी दृढ़ रुख के चलते अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनकी प्रशंसा हो चुकी है। हालांकि अपने भविष्य के बारे में उन्होंने कुछ भी कहने से इनकार कर दिया लेकिन उनके नजदीकी लोगों की माने तो सोमनाथदा राजनीति से दूर शांतिनिकेतन में रहना चाहते हैं।
भले ही 22 जुलाई के बाद सोमनाथ चटर्जी का भविष्य अनिश्चित हो गया हो लेकिन उन्हें खुद के सही होने को लेकर कोई संदेह नहीं है...शायद, कभी भी नहीं था...
14 वीं शताब्दी में इंग्लैंड के लॉर्ड चांसलर (इंग्लैंड के उच्च सदन हाउस ऑफ लॉर्डस के अध्यक्ष) मोर ने सिद्धांतों को व्यावहारिकता पर तरजीह देते हुए अपने मित्र हेनरी अष्टम की तलाक की याचिका पर सहमति की मुहर लगाने से इनकार कर दिया था। अपने सिद्धांतों की रक्षा की खातिर उन्होंने त्यागपत्र दे दिया, गिरफ्तार हुए और मौत को गले लगा लिया। वर्तमान लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने पिछले कुछ दिनों में जो कुछ किया है सिद्धांतों के लिहाज से कुछ-कुछ मोर की याद दिला देता है। चटर्जी ने मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के उस आदेश को नज़रअंदाज कर दिया जिसमें उन्हें लोकसभा अध्यक्ष पद से इस्तीफा देकर 22 जुलाई को मनमोहन सिंह सरकार के खिलाफ विश्वासमत प्रस्ताव पर वोट डालने के लिए कहा गया था। सवाल ये उठता है कि भारतीय राजनीति की सबसे अनुशासित पार्टी की संस्कृति में आकंठ डूबे इस व्यक्ति को किस चीज़ ने इतना मुखर विद्रोही बना दिया? 79 वर्षीय सोमनाथदा को नज़दीक से जानने वालों के लिए उनकी समझौता न करने वाली छवि कोई नई बात नही है। उनकी अपनी एक मौलिक सोच हैं और इसका आभास उनके साधारण से घर की दीवारों पर देखने से ही मिल जाता है। यहां सिर्फ दो चित्र नज़र आते हैं. एक गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर और दूसरा ज्योति बसु का। स्पष्ट रूप से यही दो लोग उनके आदर्श हैं। मार्क्सवादियों के आदर्श ब्लादिमिर लेनिन, कार्ल मार्क्स या फ्रेडरिक एंगल के उलट उनकी ये पसंद हैरत में डालती है। चुनौती देना शुरुआत से ही उनके चरित्र का हिस्सा रहा है। उनके पिता निर्मलचंद्र, हिंदू महासभा के अध्यक्ष और श्यामा प्रसाद मुखर्जी के विश्वस्त थे। इस पारिवारिक विरासत के बावजूद उन्होंने 1968 में सीपीएम से जुड़ने का फैसला किया। ये उनकी स्वतंत्र सोच का परिचायक था जिसका प्रदर्शन बाद में उन्होंने समय-समय पर किया। 1971 में उन्होंने बोलेपुर से निर्दलीय के रूप में--सीपीएम के समर्थन से--उपचुनाव जीता। ये सीट उनके पिता की मृत्यु हो जाने से खाली हुई थी। इसके बाद वो सीपीएम के टिकट पर अगले नौ लोकसभा चुनाव जीतने में सफल रहे। इस दौरान 1984 में उन्हें सिर्फ एक बार ममता बनर्जी के हाथों हार का मुंह देखना पड़ा। लेकिन सीपीएम से अपने चार दशक लंबे जुड़ाव के बावजूद चटर्जी कभी भी पूरा तरह से पार्टी का हिस्सा नहीं बन सके। वो पार्टी से बर्खास्त किए जाने के वक्त भी पार्टी पोलित ब्यूरो के सदस्य नहीं थे। उन्हें पार्टी की केंद्रीय समिति का सदस्य भी 90 के दशक के अंत में ज्योति बसु के आग्रह पर बनाया गया था। उनसे किसी को नाराज़गी नहीं है लेकिन पार्टी के अंदरूनी सूत्र बताते हैं कि उनकी अलग सोच और खुल के बोलने की आदत परेशानी का कारण बन जाते हैं। 1996 में जब ज्योति बसु प्रधानमंत्री बनने का मौका चूक गए तब उन्होंने तो सिर्फ इतना कहा कि सीपीएम द्वारा उन्हें प्रधानमंत्री न बनने देना एक “ऐतिहासिक भूल” थी। ये कितनी बड़ी भूल थी ये पार्टी के भीतर और मीडिया में हर सुनने की चाह रखने वाले को चटर्जी ने बताया। उन्होंने कहा कि मार्क्सवादियों को अब ‘बैकसीट ड्राइविंग’ बंद कर देनी चाहिए। “बंगाल अब पीछे से राजनीति करने वालों को नहीं झेल सकता।”
अगर उन्होंने पार्टी के कट्टरवादियों और उनकी नियंत्रणवादी प्रवृत्ति की आलोचना की तो किसी मुद्दे पर असहमत होने पर अपने नज़दीकियों को भी नहीं बख्शा। इस बात को जानते हुए भी कि ज्योति बसु कट्टर सीटू(कंफेडरेशन ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियन) नेता थे, सोमनाथ ने जूट मिलों को बंद करवाने के सीटू के तौर तरीके पर खुल कर अपनी नाराज़गी का इज़हार किया। उन्होंने एक बार कहा था, “तालाबंदी आखिरी विकल्प है। इसका सहारा तभी लेना चाहिए जब आपके पास दूसरा कोई विकल्प ही न बचा हो।”ट्रेड यूनियनों के साथ उनके टकराव को भांप कर बसु ने उन्हें पश्चिम बंगाल व्यापार विकास निगम (डब्ल्यूबीआईडीसी) का चेयरमैन बना दिया। उत्साही सोमनाथ तुरंत ही राज्य में निजी निवेश का खाका खींचने लगे। उन्होंने निजी कंपनियों के साथ रिकॉर्ड 100 से ज्यादा समझौतों पर दस्तखत किए। ये अलग बात है कि उनमें से करीब 95 फीसदी असफल रहे क्योंकि चटर्जी की योजनाओं को उनकी पार्टी का ही समर्थन नहीं मिल सका। इनमें से एक योजना कोल इंडिया द्वारा कोलकाता के पूर्वी बाइपास के पास विशाल हॉस्पिटल बनाने की थी, मगर ये शिलान्यास से आगे नहीं बढ़ सकी।
पर इस तरह के प्रतिरोध न तो उनकी एकाग्रता को भंग कर सके और न ही उनकी कोशिशों को। उन्होंने डब्ल्यूबीआईडीसी के अपने सहयोगियों से निराश न होने और देश के शीर्ष उद्योगपतियों के संपर्क में बने रहने को कहा। वो कहते थे, “आपको उन नकारात्मक विचारों का खात्मा करना है जो बाहरी दुनिया के मन में पश्चिम बंगाल के प्रति हैं।” विचारधारा पर कायम रहना और निजी निवेश की आवश्यकता को समझने की क्षमता ही उनकी एकमात्र ताकत नहीं थी। उनकी क़ानूनी प्रतिभा भी देखने योग्य थी। 1984 में पश्चिम बंगाल सरकार की पैरवी करते हुए उन्होंने एक ऐसी ऐतिहासिक जीत दर्ज की, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि न्यायपालिका को देश की चुनाव प्रक्रिया में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। केस का विषय ये था कि क्या मतदाता सूची में नाम न होने की हालत में किसी चुनाव को रोका जा सकता है। चटर्जी ने तर्क दिया कि एक बार शुरू हो जाने के बाद चुनावी प्रक्रिया को रोका नहीं जा सकता और भारत में ये संभव ही नहीं है कि सारे वोटरों के नाम मतदाता सूची में शामिल हों।1984 में पश्चिम बंगाल सरकार की पैरवी करते हुए उन्होंने एक ऐसी ऐतिहासिक जीत दर्ज की, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि न्यायपालिका को देश की चुनाव प्रक्रिया में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। सोमनाथ के विरोधी (मुख्यत: मुख्यमंत्री बुद्धदेब भट्टाचार्य और उद्योगमंत्री निरुपम सेन) कभी भी खुलेआम उनसे मुकाबला नहीं करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने सोमनाथ को हाशिए पर धेकलने का रास्ता चुना। उन्होंने पार्टी में उनकी महत्ता को कम करके बोलेपुर में उन्हें कुछ छोटी-छोटी परियोजना के काम में लगा दिया। चटर्जी ने श्रीनिकेतन और शांतिनिकेतन विकास प्राधिकरण स्थापित करके उसी उत्साह से विकास परियोजनाओं की शुरुआत की जैसा उत्साह उन्होंने राज्य में निजी निवेश को आकर्षित करने के लिए दिखाया था। जब पार्टी ने उनकी आलोचना की और उन्हें कोर्ट में घसीटा गया--वामपंथी लेखिका महाश्वेता देवी ने ये कह कर उन्हें कोर्ट में घसीटा कि वो शांति निकेतन की खोवाई या लाल मिट्टी को एक आवासीय परियोजना की वजह से बर्बाद कर रहे हैं--तो उन्होंने पूरी शिद्दत से केस लड़ा औऱ सुप्रीम कोर्ट ने उनके खिलाफ सारे आरोपों को खारिज कर दिया।
आधारभूत ढांचे के विकास चटर्झी की प्राथमिकताओं की सूची में सबसे ऊपर रहा। बोलेपुर में उन्होंने पश्चिम बंगाल के सबसे बढ़िया गीतांजलि ऑडीटोरियम और एक बेहद आधुनिक स्टेडियम की स्थापना की। वो मज़ाक में कहते थे, “अब अगर आप स्तरीय फुटबॉल खिलाड़ी नहीं पैदा कर पाते हैं तो मुझे दोष मत दीजिएगा।” ये एक साधारण टिप्पणी है लेकिन उनकी स्पष्टवादिता का अंदाज़ा दे देती है। वो जैसा सोचते हैं वैसा करते हैं। अगर लोकसभा अध्यक्ष पद को लें तो यहां वो सीपीएम के प्रत्याशी न होकर सर्वसम्मति से चुने गए थे इसलिए पार्टी व्हिप पर बिना लागलपेट के उनकी सीधी प्रतिक्रिया थी कि इस पद को संभालने का मतलब ये है कि वो पार्टी की राजनीति से परे हैं। वो अपरंपरागत मार्क्सवादी हैं, उनकी ईमानदारी पर किसी को लेशमात्र भी संदेह नहीं है। उनके दोस्त बताते हैं, जब वो 20 अकबर रोड वाले घर में पहुंचे तो उन्हें पता चला कि यहां चाय बिस्किट से लेकर साबुन तक का खर्च लोकसभा के खाते से अदा होता है। “मेरे ख्याल से मैं अपने बाथरूम का खर्च उठा सकता हूं। और मैं अपने मेहमानों के लिए एक कप चाय का खर्च भी उठा सकता हूं,” चटर्जी ने कहा और इसे बंद करवा दिया।
हालांकि लोकसभा अध्यक्ष का उनका कार्यकाल विवादों से अछूता नहीं रहा। 2005 में चटर्जी ये बयान देकर संकट में पड़ गए कि सुप्रीम कोर्ट झारखंड विधानसभा के मामले में आदेश देकर विधायकों के अधिकारों का अतिक्रमण कर रहा है। विपक्ष ने लाभ के पद को मुद्दा बना कर उनके त्यागपत्र की माग की क्योंकि वो शांतिनिकेतन श्रीनिकेतन विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष थे। अपनी विशेष अदा में उन्होंने ये कहकर सारे आरोपों को दरकिनार कर दिया कि वो किसी भी तरह का लाभ नहीं उठा रहे हैं और सारे आरोप निराधार हैं। आज ये गुस्ताख, मार्क्सवादी अपनी ही पार्टी के कट्टरपंथियों के निशाने पर है, जबकि इसी दृढ़ रुख के चलते अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनकी प्रशंसा हो चुकी है। हालांकि अपने भविष्य के बारे में उन्होंने कुछ भी कहने से इनकार कर दिया लेकिन उनके नजदीकी लोगों की माने तो सोमनाथदा राजनीति से दूर शांतिनिकेतन में रहना चाहते हैं।
भले ही 22 जुलाई के बाद सोमनाथ चटर्जी का भविष्य अनिश्चित हो गया हो लेकिन उन्हें खुद के सही होने को लेकर कोई संदेह नहीं है...शायद, कभी भी नहीं था...
शांतनु गुहा रे
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मैं तो सोमनाथ जी का कायल हो गया,
इस व्यक्ति ने तत्कालीन भारतीय राजनीति को एक गंभीर परिस्थिति से उबार लिया, इसे कोई माने या न माने ।
आपका मित्र
सजीव सारथी
०९८७११२३९९७