(मजाज बार बार याद आते हैं...एक बार फिर यादों का कारवां मजाज के पास जा पहुंचा। एक उम्दा आर्टिकिल हाथ लगा सोचा क्यों ना कतरन में संजो लिया जाए)
शहर की रात और मैं नाशादो-नाकारा फिरूँ,
जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूँ,
ग़ैर की बस्ती है, कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ,
ऐ ग़मे दिल क्या करूँ, ऐ वहशते-दिल क्या करूँ.
ये अल्फाजअसरारुल हक़ मजाज़ के हैं....असरारुल हक़ मजाज़ उस दौर के शायर थे जब कविता रूमानियत के दौर से निकल कर क्रांति का बिगुल बजाने लगी थी.यह वही दौर था जब प्रगतिशील लेखक आंदोलन की नींव पड़ी और मजाज़, सज्जाद ज़हीर और सरदार जाफ़री इस आंदोलन के संस्थापकों के तौर पर सामने आए. इस दौर की शुरुआत से पहले मजाज़ एक संवेदनशील, रूमानी शायर के तौर पर जाने जाते थे.'मजाज़ रूमानी और प्रगतिशील दोनों थे' उनकी शायरी एक ऐसी महबूबा को समर्पित थी जो किसी के भी दिल की धड़कनों में भी ढूँढी जा सकती थी.
देखना जज़्बे मोहब्बत का असर आज की शाने पे है
उस शोख़ का सर आज की रात
या फिर
क्या हुआ मैंने अगर हाथ बढ़ाना
आपने खुद भी तो दामन न बचाना चाहा
मजाज़ के अंदर के शायर ने जन्म लिया उनके अलीगढ़ विश्विद्यालय में दाख़िला लेने के बाद जबकि उन्हें कुछ ऐसे ही लोगों की सोहबत मिली. अलीगढ़ के माहौल ने मजाज़ के अंदर के शायर को पैदा किया मज़ाज़ की छोटी बहन हमीदा सालिम उन दिनों के बारे में बताती हैं, "अलीगढ़ के माहौल ने मजाज़ का शायरी की ओर रुझान पैदा किया. वहाँ उनकी सच्चे तौर पर क़द्र हुई."मज़ाज़ कमउम्री में ही शोहरत की बुलंदियों पर पहुँच गए. हर मुशायरा उनके बिना सूना समझा जाता था.कहा जाता था कि जिगर मुरादाबादी के अलावा अगर किसी शायर के तरन्नुम के लोग दीवाने थे तो वह थे मजाज़.....प्रगतिशील आंदोलन के शुरू होने के बाद मजाज़ की शायरी का रंग कुछ इस तरह बदला
बोल अरी ओ धरती बोलराजसिंहासन डावांडोल
या
जी में आता है यह सारे चाँद तारे नोच लूं
इस किनारे नोच लूँ और उस किनारे नोच लूं
एक दो का ज़िक्र क्या सारे के सारे नोच लूं
ए ग़मे दिल क्या करूँ ऐ वहशते दिल क्या करूँ
इश्क़ और फिर शराबनोशी. इन दो ने मजाज़ पर कुछ ऐसा क़ब्ज़ा किया कि उनकी पूरी दुनिया जैसे यहीं तक सिमट कर रह गई.जिसे चाहा वह मिली नहीं और फिर शराब के ज़रिए ग़म भुलाते-भुलाते मजाज़ ने अपने आप को खो दिया. इश्क़ में पागलपन ने उन्हें राँची के मानसिक चिकित्सालय पहुँचा दिया और शराब ने उनसे सोचने-समझने की क़ुव्वत छीन ली.एक ऐसा प्रतिभाशाली कवि जिसने कम उम्र मे ही शोहरत के नए आयाम तय कर लिए थे अपनी ज़िंदगी के कुल चवालीस साल में ही इतना कुछ दे गया जो उर्दू साहित्य को समृद्ध करने के लिए काफ़ी था.पाँच दिसंबर, 1955 को मजाज़ ने दुनिया को अलविदा कह दिया.आज उनकी तुलना कीट्स से की जाती है और उनका एकमात्र कविता संग्रह आहंग उर्दू साहित्य की एक ऐसी धरोहर माना जाता है जो अनमोल है.
देखना जज़्बे मोहब्बत का असर आज की शाने पे है
उस शोख़ का सर आज की रात
या फिर
क्या हुआ मैंने अगर हाथ बढ़ाना
आपने खुद भी तो दामन न बचाना चाहा
मजाज़ के अंदर के शायर ने जन्म लिया उनके अलीगढ़ विश्विद्यालय में दाख़िला लेने के बाद जबकि उन्हें कुछ ऐसे ही लोगों की सोहबत मिली. अलीगढ़ के माहौल ने मजाज़ के अंदर के शायर को पैदा किया मज़ाज़ की छोटी बहन हमीदा सालिम उन दिनों के बारे में बताती हैं, "अलीगढ़ के माहौल ने मजाज़ का शायरी की ओर रुझान पैदा किया. वहाँ उनकी सच्चे तौर पर क़द्र हुई."मज़ाज़ कमउम्री में ही शोहरत की बुलंदियों पर पहुँच गए. हर मुशायरा उनके बिना सूना समझा जाता था.कहा जाता था कि जिगर मुरादाबादी के अलावा अगर किसी शायर के तरन्नुम के लोग दीवाने थे तो वह थे मजाज़.....प्रगतिशील आंदोलन के शुरू होने के बाद मजाज़ की शायरी का रंग कुछ इस तरह बदला
बोल अरी ओ धरती बोलराजसिंहासन डावांडोल
या
जी में आता है यह सारे चाँद तारे नोच लूं
इस किनारे नोच लूँ और उस किनारे नोच लूं
एक दो का ज़िक्र क्या सारे के सारे नोच लूं
ए ग़मे दिल क्या करूँ ऐ वहशते दिल क्या करूँ
इश्क़ और फिर शराबनोशी. इन दो ने मजाज़ पर कुछ ऐसा क़ब्ज़ा किया कि उनकी पूरी दुनिया जैसे यहीं तक सिमट कर रह गई.जिसे चाहा वह मिली नहीं और फिर शराब के ज़रिए ग़म भुलाते-भुलाते मजाज़ ने अपने आप को खो दिया. इश्क़ में पागलपन ने उन्हें राँची के मानसिक चिकित्सालय पहुँचा दिया और शराब ने उनसे सोचने-समझने की क़ुव्वत छीन ली.एक ऐसा प्रतिभाशाली कवि जिसने कम उम्र मे ही शोहरत के नए आयाम तय कर लिए थे अपनी ज़िंदगी के कुल चवालीस साल में ही इतना कुछ दे गया जो उर्दू साहित्य को समृद्ध करने के लिए काफ़ी था.पाँच दिसंबर, 1955 को मजाज़ ने दुनिया को अलविदा कह दिया.आज उनकी तुलना कीट्स से की जाती है और उनका एकमात्र कविता संग्रह आहंग उर्दू साहित्य की एक ऐसी धरोहर माना जाता है जो अनमोल है.
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