(जिन्ना की तारीफ करके जसवंत सिंह फंस चुके हैं। इतिहास को देखने का उनका सलीका सवालों के घेरे में। करतन में बीबीसी से साभार जसवंत सिंह के कारनामे पर लेख को संजोने की कोशिश)
बीबीसी की राय
इक्कीसवीं सदी के भारत में जब जब मोहम्मद अली जिन्ना की प्रशंसा होगी ... उसके पीछे भारतीय जनता पार्टी का कोई वरिष्ठ नेता होगा...कुछ साल पहले तक महज़ इस ख़याल को भी लोग किसी कम अक्ल के दिमाग की उपज बता उपहास उडाते नहीं थकते.... पर जब 2005 में लाल कृष्ण आडवाणी अपनी पाकिस्तान यात्रा पर गए और जिन्ना साहब को एक बड़े धर्म निरपेक्ष नेता होने का ख़िताब अता किया और काएदे आज़म की भूरी भूरी प्रशंसा की तो ख़ासा बड़ा बवाल पैदा हो गया....कुछ ही हफ्तों में आडवाणी जी के पुराने साथी, उनके द्वारा बनाये गए और प्रोमोट किए गए नेता उनके विरोध का राग अलाप रहे थे और हिंदुत्व के लौह पुरुष को मुस्लिम तुष्टिकरण के मुद्दे पर कटघरे में खडा कर दिया गया था. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उस मुद्दे पर जो उनसे नाता तोड़ा वह तार अब तक वापस नहीं जुड़े हैं.और जिन्ना प्रकरण के बाद से आडवाणी जी कभी बीजेपी के सर्वमान्य नेता नहीं बन पाए.यह एक अलग बहस का विषय है की आडवाणी के साथ जो हुआ वह सही था या ग़लत.क्यों बीजेपी और आरएसएस उनकी उस रणनीति को नहीं समझ पाए जिसके ज़रिये आडवाणी भारतीय मुसलमानों में अपनी मुस्लिम विरोधी छवि तोड़ने की कोशिश कर रहे थे? बहरहाल उस प्रकरण का बकौल आडवाणी जी इतना असर ज़रूर हुआ की उनकी पाकिस्तान में छवि स्पष्ट हो गयी और सीमा पार से उनके पास प्रशंसा के कई ख़त आए. पर भारतीय राजनीति के परिपेक्ष में जिन्ना विवाद का ज़बरदस्त खामियाजा आडवाणी को भुगतना पड़ा. अब बारी जसवंत सिंह जी की है. उन्होंने कायदे आज़म पर एक ६५० पन्नों की पुस्तक लिख दी है जिसमें न सिर्फ उन्होंने जिन्ना को एक महानायक की संज्ञा दी है बल्कि विभाजन के लिए जवाहर लाल नेहरु और ब्रितानी हुकूमत दोनों को जिन्ना जितना ही दोषी माना है.
जसवंत की दलील
' मेरा किताब लिखने का मकसद किसी को सही और किसी को ग़लत ठहराना नहीं बल्कि इतिहास के पन्ने पलट विभाजन के कारणों को समझने का है'