अगर यह सब कुछ सच में नहीं हो रहा होता, अगर इसके मुख्य पात्र भारत की प्रमुख विपक्षी पार्टी और पिछले तीन दशकों से उस पार्टी की प्रथम पंक्ति में खड़े एक नेता नहीं होते तो भाजपा-जिन्ना-जसवंत की इस तिकड़ी का किस्सा एक अलग किस्म की ग्रीक त्रासदी होती जिसके अंत में शायद रोना कम और हँसी ज़्यादा आती.
पूरे
प्रकरण को दो तरह से देखा जा सकता है. मैं दोनों विश्लेषण लिख देता हूँ, आप जिसे चाहें सही मानें और उसी विश्लेषण का चश्मा पहन भाजपा का भविष्य देखें. पहला विश्लेषण यह एक दिशाहीन नेतृत्व द्वारा लोगों का ध्यान, भाजपा को चुनौती दे रही अगली समस्याओं से हटाने की कोशिश है. पार्टी के समक्ष चुनौती है- आडवाणी के बाद कौन? सत्ताधारी नेतृत्व का कांग्रेस का नेतृत्व किस युवा दिशा में जा रहा है सबको दिख रहा है. भाजपा में आडवाणी फ़िलहाल पद छोड़ने के मूड में नहीं हैं और सुषमा, जेटली, नरेंद्र मोदी, अनंत कुमार जैसे उनके समर्थकों की टोली को अभी और इंतज़ार करना पड़ेगा. 2004 और 2009 के दो आम चुनाव हारने के बाद भाजपा के समक्ष संगठन को वापिस खड़ा करने और कांग्रेस के सामने मज़बूत विपक्ष की भूमिका अदा करने की चुनौती है. राजनाथ सिंह का कार्यकाल भी अगले साल की शुरुआत में समाप्त होने जा रहा है. पार्टी को यह सोचना चाहिए कि उनके बाद पार्टी की बागडोर किसके हाथ में होगी ना कि आडवाणी बनाम राजनाथ सिंह के छद्म युद्ध में फँसना चाहिए.पार्टी को राजस्थान में चल रही बग़ावत पर ध्यान देना चाहिए. साथ ही 2014 में लगातार तीसरा चुनाव वो ना हारे इस बारे में चिंतन करना चाहिए. राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ और भाजपा में टकराव नहीं सामंजस्य कैसे बढ़े इस पर सोचना चाहिए. भाजपा का भविष्य पिछले पाँच-छह सालों के मुकाबले और उज्ज्वल करने का एक मात्र रास्ता स्वस्थ और ईमानदार आत्मचिंतन ही होगा. पर चिंतन बैठक में क्या होता है? जिन्ना पर पुस्तक और उसकी प्रशंसा जसवंत सिंह की पार्टी से विदाई का कारण बनती है. और एक नॉन इश्यू को इतना तूल दे दिया जाता है कि वो चिंतन बैठक में आगे होने वाली सभी कार्यवाही पर हावी हो जाता है. कुल मिला कर पार्टी अनुशासन और सिद्धांतों के नाम पर काफ़ी वाहवाही बटोरने की कोशिश करती है पर अंत में असली मुद्दों का सामना करने का साहस नहीं जुटा पाती.
अब विश्लेषण के दूसरे पहलू पर भी नज़र डालें जिसे भाजपा नेता मीडिया को बेचने का प्रयास कर रहे हैं. इस वर्ग का कहना है कि पार्टी में अब अनुशासनहीनता बिल्कुल बर्दाश्त नहीं की जाएगी चाहे नेता कितना ही बड़ा क्यों ना हो अगर वह पार्टी के सिद्धांतों, सोच और दर्शन के ख़िलाफ़ जाएगा तो उसके साथ वही होगा जो जसवंत सिंह के साथ हुआ है. जसवंत सिंह को उदाहरण बनाना पार्टी के लिए आसान भी है. कहने को तो वो बड़े कद्दावर नेता हैं, रक्षा, विदेश और वित्त मंत्रालय सँभाल चुके हैं. पर ज़मीनी राजनीति पर उनके पार्टी में रहने या नहीं रहने से ज़्यादा फ़र्क नहीं पड़ता. जसवंत सिंह कभी भी जननेता नहीं रहे हैं. तो पार्टी उन पर निशाना साध कर वसुंधरा राजे जैसे नेताओं को भी चेता रही है जिन्होंने बाग़ी तेवर अपनाए हुए हैं. भाजपा नेतत्व जसवंत के ख़िलाफ़ कार्रवाई कर आरएसएस को भी मनाने का प्रयास कर रहा है जो मौजूदा वक़्त की ज़रूरत है. जसवंत कभी भी आरएसएस की पसंदीदा सूची में शामिल नहीं थे और मामला इस बार सिर्फ़ जिन्ना का ही नहीं था. जसवंत सिंह ने अपने बयानों में आरएसएस के दिल के सबसे क़रीबी कांग्रेसी नेता वल्लभ भाई पटेल पर भी प्रहार कर पार्टी से अपनी बर्ख़ास्तगी का मार्ग स्वयं ही प्रशस्त किया है. कुल मिला कर इस वर्ग का यह मानना है कि समय सख़्त कार्रवाई और राजनीतिक संदेश देने का था और पार्टी ने वही किया है. एक तीर से कई निशाने साधे गए हैं. दोनों में से कौन सी सोच सच्चाई के ज्यादा क़रीब है यह फ़ैसला मैं आप पर छोड़ता हूँ. हाँ एक बात तय है कि अगर जसवंत सिंह के ख़िलाफ़ मुद्दा सिर्फ़ और सिर्फ़ ज़िन्ना पर उनकी पुस्तक है तो मैं जसवंत सिंह के उस बयान से सहमत हूँ कि विचारों पर प्रतिबंध और कार्रवाई की राजनीति कोई बहुत स्वस्थ परंपरा नहीं है.
( बीबीसी के सजीव द्वारा )
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