बुंदेलखंड इन दिनों सूखे की चपेट में है। हर तरफ सूखे पड़े खेत, पेड़-पौधे, नदियां और तालाब मानों मेघ से बरसने की गुहार लगा रहे हों। इसी बुंदेलखंड क्षेत्र के बांदा के प्रेम सिंह ने खेती करते हुए एक मिसाल कायम की है। उन्होंने राजस्थान लोक सेवा आयोग की नौकरी छोड़कर खेती को अपनाया। 1989 से वे खेती के साथ तरह-तरह के प्रयोग कर रहे हैं।
श्री सिंह कहते हैं, ‘मैंने कुछ नया नहीं किया। यह सारा पारंपरिक ज्ञान का कमाल है। जिसे हम भूलते जा रहे हैं। जरूरत है इसे याद रखने की।’प्रेम सिंह ने खेती करना 1987 से प्रारंभ किया। उन्होंने रासायनिक खेती से शुरूआत की। दो साल के बाद ही उन्हें लगा कि इस तरह बात नहीं बनेगी। अगले साल ही उन्होंने जैविक खाद का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। उन्हें रासायनिक खेती किसी साजिश की तरह लगती है। वे कहते हैं, ‘ऐसा लगता है जैसे हमारी परंपरा से हमें अलग करने की कोई साजिश रची जा रही हो। हमें आत्मनिर्भर की जगह, किसी और पर निर्भर बनाया जा रहा हो। प्रेम सिंह ने आत्मनिर्भर होने के लिए ही अपने खेतों में रासायनिक खाद की जगह जैविक खाद का इस्तेमाल किया। बीजों के मामले में आत्मनिर्भर होने के लिए अपना बीज बैंक बनाया। जिसमें तकरीबन पचास किस्म के फल-सब्जी-अनाज के बीज उपलब्ध हैं। उन्होंने खेती में कम से कम पानी खर्च करने की पध्दति को भी अपनाया। 1989 में जब उन्होंने जैविक खाद के साथ खेती की शुरूआत की तो उस वक्त बुंदेलखंड में फूलों की खेती को कोई किसान आर्थिक लाभ की वस्तु नहीं मानता था। इसके बावजूद सिंह ने उस समय फूलों की खेती की। उस वक्त प्रयोग के तौर पर की गई इस खेती से उन्हें 18,000 हजार रुपए का फायदा हुआ। इस तरह उत्साह बढ़ा और उन्होंने फूल के साथ फल भी लगाए। सिंह कहते हैं, ‘फल से उन्हें अनाज की अपेक्षा बीस गुना अधिक आमदनी हुई।’
पानी को कम मात्र में खर्च करके खेती करने के उनके हुनर की चर्चा करने पर वे कहते हैं, ‘पानी की जरूरत जड़ों को नहीं होती, पत्तों को होती है। और आमतौर पर हम पानी जड़ों में ही डालते हैं। जबकि पत्ते अपने लिए पानी वातावरण से बटोरते हैं।’ वे आगे कहते हैं, ‘यदि पौधों के साथ लगाई जाने वाली क्यारियों को जड़ों से जरा दूर रखें और क्यारियों में पानी दें तो जड़ें पानी लेने के लिए आगे बढ़ेंगी। जडें ज़ितने बड़े क्षेत्र में फैलेगा, पेड़ उतना ही बड़ा और घना होगा।’
आज से दस साल पहले तक गेहूं की एक किस्म ‘कठिया’ को बुंदेलखंड के लोग खाना तो क्या देखना तक पसंद नहीं करते थे। उसकी खेती को प्रेम सिंह ने अपने यहां प्रोत्साहित किया। कठिया की एक खूबी यह है कि इसमें रासायनिक उर्वरक का इस्तेमाल करने पर इसकी फसल सूख जाएगी। इसे अधिक पानी की जरूरत भी नहीं होती। जबकि यह साधारण गेहूं से अधिक पौष्टिक होता है। बकौल प्रेम सिंह, ‘कठिया की खेती को प्रोत्साहित करने की वजह से मुझे ‘स्लो फूड’ नाम की एक संस्था ने अपनी बात दुनिया भर के किसानों के सामने रखने के लिए कनाडा और जर्मनी लेकर गई। जहां आए तमाम विद्वान मेरी बात से सहमत हुए।’ वे ‘गांव’ ब्रांड नाम के साथ अचार, मुरब्बा, शर्बत, दलिया आदि बना रहे हैं। जिसे देश में ही नहीं, देश के बाहर भी पसंद किया जा रहा है..
सौजन्य आशीष कुमार
1 Comment:
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- सुबोध said...
September 9, 2009 at 9:02 AMबेहतरीन जानकारी इस लिहाज से कि आप खुद आत्मनिर्भर हों तो कोई भी बाधा आपको आड़े नहीं आ सकती