रिश्तों की प्यारी सी कहानी..
कही अनकही..छुई अनछुई...
बेहद खुबसुरत भगवान का तोहफा...
हर रिश्ते की अपनी खुबसूरती लिए...
एक दम आसमान में फैले एक इन्द्रधनुष की छठा लिए...
प्यार, सम्मान, मजाक, सुख से सजे ये रिश्ते..
और रिश्तों की प्यारी सी कहानी...


होली के रंगों में केमिकल बहुत ज्यादा मिला होता है। यही नहीं, इनमें कपड़ों को रंगने वाले केमिकल यूज किए जाते हैं। ऐसे में आपकी स्किन को नुकसान पहुंच सकता है। स्किन होली के रंगों से डिस्कलरेशन यानी बद-रंग, कॉन्टैक्ट डर्मेटाइटिस, अब्रेशन यानी छिलन या खरोंच, खुजली, रूखापन जैसी प्रॉब्लम्स हो सकती हैं।

दरअसल होली के रंगों में केमिकल यूज किए जाते हैं। इससे खुजली या फुंसी हो सकती है। स्किन पर कलर लगने इसे उसमें रूखापन आ जाता है। होली के रंगों या गुलाल में कई तरह के कार्बनिक पदार्थ होते हैं, जैसे ऑक्साइड ग्लास पार्टिकल्स, अभ्रक चूर्ण वगैरह, यहां तक की एनीलिन भी मौजूद होते हैं, जो कपड़ों को रंगने में यूज किए जाते हैं। कॉपर सल्फेट जैसे हरे रंग में क्रोमियम और ब्रोसाइड होते हैं, जबकि काले रंग में ऑक्साइड होता है। चूंकि ये पदार्थ होली के रंगों से कच्चे रूप में मौजूद होते हैं, इसलिए इनका इस्तेमाल स्किन के लिए ठीक नहीं है। टेट्राथिलीन, लीड, बेंजीन जैसे खुशबू बिखरने वाले पदार्थ के कारण स्किन ड्राई हो जाती है। हालांकि ये सभी प्रारंभिक स्तर के इरिटैंट हैं।

स्किन केयर आप जब होली खेलने निकले तो अपनी पूरी बॉडी पर मॉइश्चराइजर या क्लींजिंग मिल्क लगा लें। इससे आपकी आपकी स्किन पर रंग नहीं चढ़ेगा या फिर वह धोने पर उतर जाएगा। कोशिश करें कि होली पर हर्बल कलर यूज करें। आप मोटे कपड़े पहने, जिससे स्किन पर कलर न लगे। नाखूनों पर नेल पेंट लगा लें। इससे नाखूनों पर रंग नहीं चढ़ेगा। हरे, पीले व नारंगी रंगों से बचना चाहिए, क्योंकि इनमें मौजूद केमिकल्स से त्वचा को नुकसान पहुंचता है। अगर आने आने लगे तो कैलामाइन लोशन का प्रयोग करें। बालों व त्वचा को साबुन आदि से रगड़ना नहीं चाहिए।

हेयर होली के रंगों में मिले केमिकल से बालों को सबसे ज्यादा नुकसान होता है। अगर होली के रंगों को देर तक बालों में लगा छोड़ दिया जाए, तो इससे बाल रूखे हो जाते हैं। हालांकि बालों की जड़ या सिर की स्किन को इससे कोई खास नुकसान नहीं पहुंचता है, मगर बालों का टूटना शुरू हो जाता है। रंगों में मौजूद रासायनिक पदार्थों व धूल वगैरह के कारण भी बालों में एलर्जी हो सकती है।

हेयर केयर होली खेलने से एक दिन पहले आप अपने बालों की अच्छे से मसाज कर लें और बालों में तेल को लगा रहने दें। इससे आपको बालों पर कलर नहीं चढ़ेगा। आप जब होली खेलकर आए, तो तुरंत गुनगुने पानी से बाल धो लें और फिर बालों में तेल लगा लें। इससे आपके बालों को नुकसान नहीं होगा।

आंख होली के दौरान आई एलर्जी, अस्थायी या स्थायी अंधापन, दृष्टि दोष, आंखों की रोशनी कम होना, कंजक्टिवाइटिस, कॉर्निया में जामुनी रंग और आंख में सूजन वगैरह हो सकती है। चूंकि आंखें बेहद ही नाजुक होती हैं, इसलिए होली पर इन पर चोट लगने की ज्यादा संभावना होती है। होली पर इस्तेमाल किए जाने वाले रंग आंखों को निम्न तरह से नुकसान पहुंचा सकते हैं। - गुलाल में मिला कांच का चूरा, अभ्रक चूर्ण, पत्थर का चूरा वगैरह से रेटिना, कॉर्निया और आंखों के अन्य संवेदनशील हिस्सों को नुकसान पहुंच सकता है। - होली के समय बलून से लगने वाली आम चोटें हैं, जो कभी गंभीर भी हो सकती हैं। आंखों की देखभाल केमिकल कलर का इस्तेमाल अपने चेहरे पर न करें।

आंखों के आसपास आईज क्रीम लगा लें। इससे आपकी आंखों आसपास की स्किन व पलकों को नुकसान नहीं पहुंचेगा।


पत्रकारिता से जुड़ा हर दूसरा आदमी दबाव से परेशान है... ऊपर बैठा हर आदमी अपने नीचे वालों पर चढ़कर..उसे मसल कर आगे आना चाहता है...या फिर किसी को आगे बढ़ते हुए नहीं देख सकता है... पत्रकार जो कभी सबकी आवाज उठाने का दम रखते थे... आज खुद अपनी तबाही पर खामोश हैं... पत्रकारिता कर रहा लगभग हर आदमी किसी न किसी बीमारी का शिकार हो रहा है...कोई दिक्कत को समझना नहीं चाहता...आखिर ऐसा हो क्यों हो रहा है... पत्रकारिता प्रेशन कुकर क्यों बनती जा रही है...आखिर क्यों आप हम ये नहीं समझ रहे कि इस दौड़ का अंत कितना दर्दनाक है...कोई खुश नहीं है...खुद सोचिए बतौर पत्रकार आप कहां खड़े हैं... आखिर हम सब कर क्या कर रहे हैं... हम खुद टेंशन की उंगली पकड़कर खुद को दर्दनाक मौत की तरफ ढ़केल रहे हैं... अशोक उपाध्याय जी को याद करिए... उनकी मौत सामान्य मौत नहीं थी....उनकी मौत मर्डर थी... और उनको मौत के मुंह में ढकेलने वाले वही थे...जो रहनुमाओं का दंभ पाले मीडिया को मारने पर उतारु हैं...रोज रोज झूठ की कब्र खोदकर...पत्रकारिता को जिंदा दफन करने में जुटे हैं... अशोक जी मरे नहीं मारे गए... वो खामोशी से सबकुछ सही होने का इंतजार करते रहे... लेकिन उनकी खामोशी को कमजोरी समझकर पत्रकारिता के दलाल अपना उल्लू सीधा करते रहे... सवाल ये है कि जिस पत्रकारिता ने देश की आज़ादी के लिए आवाज़ उठाई... तो अपने लिए बोलने की ताकत क्यो नहीं है... हम सब चुप क्यों है...क्यों हमसब मैनजमेंट के हाथ की कठपुतली बन कर रह गए है... क्यों हम आपने लिए आवाज नहीं उठा रहे है...आज अशोक जी गए है..कल हम आप में से कोई भी जा सकता है...इससे पहले कि जिंदगी मौत से बदतर बन जाए...क्यों ना जिंदगी को गले लगा लिया जाए...और अपने दिल से बोला जाए आल इज वेल...क्योकि टेंशन हमें सिर्फ जिंदगी से बदतर जिदंगी देगी... लेकिन जिन्दगी आपको वो सब देगी..जो आप चाहते है...जो आपका सपना है...तो अब देर मत करिए...आगे बढ़िए और जिंदगी के एक भी दिन को जाया न होने दीजिए...ये मेरी हर मीडिया से जुड़े ... मेरे जैसों से विनती है...फिलहाल कहने को बहुत कुछ है....

(शालिनी राय) ....

एक कहानी और है गौर से पढ़िएगा...ये गुस्सा अशोक जी की मौत पर था... मेल काफी दिन से मेरे पास पड़ी थी... पब्लिश कर रही हूं...इस घटना के पात्र ना तो काल्पनिक हैं...और ना ही घटना... गौर से पढ़िएगा तो पात्रों के चेहरे आपके सामने होंगे...

एक चिरौंजी लाल गुप्ता जी हैं... साम दाम दंड भेद के साथ साथ ईमेल से भी मीडिया में रहने के गुर जानते हैं... खुद को मशहूर मानते हैं और उनके अलावा सभी उन्हें कुख्यात... ह्यूमन बम मानते हैं... लेकिन ये ह्यूमन बम राजनीति की आदत में अशोक जी को न शामिल करे तो ये उनके स्वास्थ्य के लिए बेहतर होगा... कमीनपने की हद तक गिरने वाला ये शख्स (ये खुद इन्होंने हस्ताक्षर करके माना है) अशोक जी के नाम पर खुद को बड़ा साबित करने के लिए इतना बेचैन है कि इसने एक फिक्शन लिख दिया औऱ अपने शब्द अशोक जी के नाम से प्रकाशित करवा दिए हैं... सुनो मिस्टर चिरौंजी लाल... अशोक जी ऐसा कह ही नहीं सकते कि काम करने का मन होता है... ये मैं नहीं अपने अलावा दुनिया में किसी से भी पूछ लीजिए... और जो तथाकथित उनकी भाषा आपने लिखी है न उससे बाज़ आइए वरना पिटेंगे... आप अशोक जी को नहीं जानते थे... सिर्फ एक दफ्तर में काम करने से किसी को जानने का दावा मत कीजिए... मैं तुम्हारे दफ्तर में काम नहीं करता हूं लेकिन तुम्हें जानता हूं... तो अशोक जी के लिए ऐसी बात लिखना पाप नहीं गुनाह है... क्योंकि चिरौंजी लाल तुम पाप पुण्य से आगे निकल चुके हो... सुनो चिरौंजी लाल... अशोक जी नाइट शिफ्ट से खुश नहीं परेशान थे... अगर उन्होंने तुमसे ये बात नहीं कही तो सिर्फ इस लिए क्योंकि तुम इसमें भी कोई राजनैतिक एंगल ढूंढ कर उन्हें परेशान करते... औऱ सुनलो चिरौंजी वो कभी किसी से (और खास कर तुम जैसे कमीने आदमी से) ये नहीं कह सकते कि आप एंकरिंग करदो मज़ा आ जाएगा क्योंकि तुम्हारी एंकरिंग से कभी किसी को कहीं भी मज़ा नहीं आता... चाहे अपने डेस्क में पूछ लो... पीसीआर में... एमसीआर में... या एक-आधे दर्शक से... और वो तुम्हें फोन करके ये कहेंगे कि सारे ग्राफिक्स लोड करा दिए हैं... दुनिया का कोई आदमी ये कहदे की ये अशोक जी की भाषा है तो सवा रुपय हार जाउंगा...(क्योंकि तुम्हारी औकात इससे ज़्यादा नहीं है)... तुमने बहुत कुछ ऐसा लिखा है जिसके बाद तुम्हें मारने औऱ सिर्फ मारते रहने का मन हो रहा है... लेकिन बात अशोक जी की है तो उनके शब्दों में कह रहा हूं... " जाने दे न यार... अपन को काम से मतलब है...टेंशन मत ले यार..." उनसे उम्र... पद और गुणों में बहुत छोटा हूं... तो उनके इस शब्द यार में छोटे भाई का प्यार झलका... औऱ यही प्यार है जिसकी वजह से सिर्फ तुम्हें मारते रहने का मन कर रहा है....(ईमेल)


कहते तो आपने बहुत लोगो को सुना होगा..एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो...लेकिन क्या आपने वाकई ऐसा कोई पत्थर आसमांन की तरफ जाते हुए देखा...जी हां सुनने में आपको थोड़ा अजीब लग रहा होगा... लेकिन ऐसा वाकई हुआ है...अपने काम से देश ही नहीं विदेश में भी अपनी कार्यकुशलता का परचम लहरा चुकां ये ग्रुप तो कुछ ऐसा ही आज चमक रहा है... र्ब्रिटेन के प्रिंस चार्ल्स तक को प्रभावित करने वाले मुंबई के डब्बेवाले इस वर्ष गणतंत्र दिवस की परेड में महाराष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने वाले हैं। लंदन के प्रिंस चार्ल्स ने मुंबई यात्रा के दौरान उनसे भेंट की थी। प्रिंस ने बाद में उन्हें अपनी शादी में भी बुलाया था। इतना ही नहीं इन डब्बेवालों को अंतरराष्ट्रीय स्तर के प्रबंधन स्कूलों ने अपने छात्रों को व्याख्यान देने के लिए भी आमंत्रित किया था।
'गणतंत्र दिवस की परेड में ये मुंबई की संस्कृति का प्रतिनिधित्व करेंगे। परेड के लिए लगभग 15 डब्बेवालों का चयन किया गया है, जिन्हें संगीत और नृत्य का प्रशिक्षण दिया जा रहा है, जिसका वे परेड के दौरान प्रदर्शन करेंगे।'
अपने सफल व्यवसाय के दौरान कोडिंग सिस्टम का उपयोग करने वाले डब्बेवाले मुंबई के लगभग दो लाख कामकाजी लोगों और स्कूली बच्चों को प्रति दिन टिफिन पहुंचाते हैं। नूतन मुंबई टिफिनबॉक्स सप्लायर्स के अध्यक्ष रघुनाथ मेडगे ने कहा, 'यह किसी सपने के सच होने जैसा है


ऑफिस का कॉम्पिटिशन, सुबह की जॉगिंग, थिएटर में पॉपकॉर्न टटोलती उंगलियां या फिर सोने के पहले सोचने जैसा कुछ, यही सब मिलकर बनाता है जिंदगी को। हमें इस जिंदगी से तमाम शिकायतें हैं, मगर उन शिकायतों की पूंछ में लिपटी आती हैं तमाम उम्मीदें और उन्हें पूरा करने के लिए जोश।
हमारे मकसद में एक तपिश है, जो मुश्किलों के पहाड़ को धीरे-धीरे ही सही, पिघलाने का माद्दा रखती है, बशर्ते हम ठंडे न पड़ जाएं। इसलिए जिस कोने में कभी आपकी सेहत, तो कभी आपकी जेब को बचाए रखने और बेहतर करने के नुस्खे सुझाए जाते हैं, उस पर हमने इस बार जिंदगी की हरारत से जुडे़ कुछ ख्यालों को जगह दी है। वजह सिर्फ इतनी कि जिंदगी को बांहों में भींचने के लिए हमें भी तो कुछ करना होगा। तो नए साल से पहले जिंदगी को नई नजर से निहारने की कोशिश कर रहे हैं सौरभ द्विवेदी :

खिल-खिल-खिल कर हंस दें
एक ही स्कूल, कॉलेज और दफ्तर में तमाम ऐसी शक्लें हैं, तमाम ऐसी आवाजें हैं, जो कभी हमें पसंद थीं। फिर एक दोपहर या शाम किसी बहस ने जंबो साइज हासिल कर लिया और हमारी मुस्कानों के बीच में इगो का सोख्ता आ गया, जिसने रिश्तों की सारी नमी को सोख लिया। कोई दोस्त, कोई कलीग या फिर कोई रिश्तेदार, जिसके साथ आपने कभी न कभी कुछ अच्छा वक्त जरूर बिताया है, अब उससे बात करने का, उसे देखने का दिल भी नहीं करता। तो कोशिश करें कि अच्छी यादों को बुरी यादों के ऊपर जीत हासिल हो। हम यह नहीं कहते कि ऐसी हर गलतफहमी या मनमुटाव को खत्म कर धर्मात्मा बन जाएं, मगर हां चुप्पी के कुछ सन्नाटों को एक हंसी के कहकहे के साथ खत्म किया जा सकता है। क्या पता आपकी हंसी फिर से नमी पैदा कर दे? और हां इन सबसे दूर हंसी की डेली डोज भी जरूरी है। आपसे किसी ने कभी तो कहा होगा, वेन यू स्माइल, यू डू वेल। सो डू वेल इन लाइफ।
हरी-भरी दुनिया पर टिकती हैं आंखें
ऑफिस है, काम है, घर की जिम्मेदारियां हैं, बीवी है, बच्चे हैं, एक फिक्स्ड रुटीन है। दोस्त हैं, दुश्मन हैं, सब कुछ है, मगर फिर भी कुछ है जो अधूरा-सा लगता है। शायद हमारे आसपास बदलती दुनिया के साथ हमारा रिश्ता बड़ा कामकाजी-सा हो गया है। तो फिर हम एक नए कुछ-कुछ बचपने-से-भरे एक्सपेरिमेंट पर हाथ आजमा सकते हैं। एक नन्हा-सा गमला, जिसमें हम खुद से इंतजाम कर भरेंगे, मिट्टी। मिट्टी भरते समय एक लंबी सांस ताकि नाक जो गीली मिट्टी की खुशबू भूल चुकी है, ताजादम हो जाए। इस सबके बाद अपनी पसंद का कोई एक पौधा। ये तुलसी भी हो सकता है और गुलाब भी। उस पौधे या कलम को गमले में रोप दें। थोड़ा-सा पानी, थोड़ी-सी धूप, इसका रखें ध्यान। और हां कुछ ही दिनों बाद वह पौधा, जो आपकी स्टडी टेबल वाली खिड़की या रोशनदान के नीचे वाली जगह पर सुस्ता रहा है, आपका ध्यान खींचने लगेगा। उसका बढ़ना, उसके जिस्म पर नई-नवेली पत्तियों का आना, उसकी तली यानी मिट्टी में भुरभुरापन पैदा होना, सब कुछ आपको अलहदा लगेगा। दरअसल, मन किसी को हमारे प्यार की हरारत पा बढ़ते देख खुश हो जाता है। तो जनाब देर किस बात की, एक गमला तलाशना शुरू करिए और हां याद रखिए, हमारे अपने भी ऐसी ही हरारत की उम्मीद रखते हैं।
कह दूं तुम्हें
ऑफिस में बॉस की नई टाई नोटिस करते हैं, मगर बीवी ने कान के बुंदे कब बदले, यह याद नहीं। स्टेशनरी खत्म हो गई, यह याद है, मगर बेटी के कलर ब्रश लाना रोज भूल जाते हैं। आपकी डेस्क कुछ ज्यादा साफ है, होटेल में वेटर ने वाकई अच्छी-सी मुस्कान के साथ सर्व किया या फिर उम्मीद के उलट ब्लूलाइन के कंडक्टर ने या फिर ऑटो वाले ने मुस्कराकर आपको चौंका दिया, हर बार जरूरत होती है झिझक या सुस्ती को कंधों से झटकर थैंक्यू बोलने की, कॉम्प्लिमेंट की खुराक देने की। हममें से हर कोई बदलाव को नोटिस करता है, अच्छी चीजों को अपने-अपने तईं याद रखता है, मगर फिर हम उन्हें बोलने से मुकर जाते हैं। लगता है क्या सोचेगा सामने वाला इस तरह से खुद को, खुद की चीजों को नोटिस किया जाते देखकर। सोचेगा, जरूर सोचेगा, मगर यकीन मानिए, सच्चे दिल से की गई सच्ची तारीफ उसे कुछ अच्छा ही सोचने पर मजबूर करेगी। तो फिर कह दीजिए दिल की बात, अपनों से। कुछ अपने ही अंदाज में। यह अंदाज मिसिंग यू का एसएमएस भी हो सकता है या फिर किसी पुराने दोस्त को फोन कॉल या ईमेल। प्यार भरी थपकी या फिर आंखों में ढेर सारी मीठी शरारत घोलकर बोला गया थैंक्यू भी जादू कर सकता है। तो नए साल को एक्सप्रेशन का साल बनाइए और कह ही दीजिए।
बोल के लब आजाद हैं तेरे
सड़क में गड्ढे क्यों हैं, ऑफिस में लोग दूसरों की सुविधा का ध्यान रखे बिना घंटों गॉसिप क्यों करते हैं, एक सुबह अगर हम खुद को आईने में देखें और बूढ़ा पाएं, तो ऐसे तमाम सवाल या ख्याल हमें घेरे रहते हैं और उनके बारे में सोचकर हम कसमसाते भी खूब हैं, मगर ऐसी कसमसाहट का क्या फायदा। वो कहते हैं न कि जिस गुस्से से कोई गुल न खिले, उसके होने का क्या फायदा। तो अपने आसपास की बातों के लिए, अपनी यादों के लिए या किसी और की कहानी को दुनिया को सुनाने के लिए ही सही बोलिए और अपने अंदर की आवाज को बाहर आने दीजिए। इंटरनेट की दुनिया है, चंद मिनटों की मेहनत से अपना ब्लॉग तैयार किया जा सकता है। किसी वेब पोर्टल के लिए कंटेंट तैयार किया जा सकता है। चंद हजार में आपकी अपनी वेबसाइट। हर मीडिया एजेंसी को तलाश है ऐसे ही लोगों की जो कुछ बोलना चाहते हैं, क्योंकि जमाना सिटिजन जर्नलिस्ट का है। मोबाइल पर बोलते हैं, दिन में आधा घंटे एसएमएस टाइप करते हैं।
तो ऐसा नहीं है कि इंडिया बोलता नहीं है, मगर इस साल ये बोल औरों तक मुकम्मल ढंग से पहुंचें, इसका इंतजाम करें। आप रेजिडेंट वेलफेयर असोसिएशन में बोलें, किटी पार्टी के बीच में बोलें, पैरंट्स मीटिंग में बोलें, मगर जब भी बोलें, दिल से बोलें। जिन चीजों को आपने महसूस किया है, उन्हें बोलें। और हां, अगर सबके साथ अपने ख्याल साझा करने से परहेज है, तो एक दिन स्टेशनरी की दुकान के सामने रुक जाएं और अपने लिए चमड़े के जिल्द या चिड़िया के कवर वाली डायरी या कॉपी खरीद लें और इसी पर लिखें। पहला हर्फ लिखने से पहले 15 मिनट से कम नहीं लगेंगे, मगर एक बार सिलसिला निकल पड़ा तो फिर थमाए नहीं थमेगा। तो फिर बोल क्योंकि जबां अब तक तेरी है।
वॉक पर चलें क्या
सर्दियों की शाम और गर्मियों की सुबह नेचर ने उन लोगों के लिए बुनी है, जो सपनों को चुनना जानते हैं। अच्छा गोल-गोल बात नहीं, पर बताइए आखिरी बार अपनों के साथ या खुद अपने साथ वॉक पर कब गए थे? यूं ही शरीर को कुछ सुस्त-सा छोड़कर, कदमों को खुद अपनी थाप पर डोलते देखने का मन नहीं करता? एक जर्मन थिंकर था नीत्शे। कहता था कि दुनिया के सारे महान ख्याल टहलते हुए ही आते हैं। तो फिर टहलिए। कोई वक्त तय नहीं, कोई रूट तय नहीं। बस यूं ही खाना खाने के बाद या शाम की चाय से पहले टहला जाए। आसपास की चीजों को कुछ ठहरकर देखा जाए।
हो सकता है कि एक दुनिया समानांतर बसी हो, जिसे टाइम से ऑफिस पहुंचने या फिर जल्दी घर पहुंचने के फेर में कभी देखा ही न हो। खैर दुनिया की छोड़िए और अपने भीतर की दुनिया का ही हाल जान लीजिए। पार्क में या फिर कम ट्रैफिक वाली सड़क के फुटपाथ पर या फिर दिन के शोर से दूर किसी चुप से मैदान में टहलिए और दिमाग को डोलने दीजिए, जहां दिल करे। यकीन मानिए कुछ बेहतर महसूस करेंगे। तो फिर सोचना कैसा, वॉक पर चलते हैं। धुंध के बीच अपने ख्यालों के साथ पार्टनरशिप करते हैं और फिर घर में घुसने से पहले सिर्फ अपने कानों को सुनाते हुए कहते हैं - हेलो जिंदगी।
छोटी चीजों का सुख
कार कब ले पाऊंगा, अपने घर का क्या होगा, मशीन है मगर पूरी तरह से ऑटोमैटिक नहीं। बीवी से बनती नहीं, बॉस समझता नहीं और बच्चे, अजी कुछ पूछिए मत, कम्बख्त पढ़ते ही नहीं। तो बड़ी शिकायतें हैं हमें जिंदगी से, अपने आसपास से और उनसे पार पाने के लिए हम किसी बड़े सुख का इंतजार करते हैं। कुछ भारी-भरकम सा, बहुत अच्छा-सा होगा। सुबहों का रंग और शामों की खुशबू बदल जाएगी। मगर इस बड़ी खुशी के इंतजार में हम छोटी खुशियों को फुटपाथ किनारे ठिठुरता छोड़ देते हैं, घर लाने के बजाय। संडे सुबह की खूब अदरक वाली कड़क चाय पीते हुए बतियाना या फिर रात गए रजाई के ऊपर ही मूंगफली से मुठभेड़ करना। सब भूल गए, वक्त की आपाधापी में। सच बताएं, भूले नहीं, मगर अब महसूस नहीं करते। दाल अब भी खाते हैं, मगर उसमें ताजा धनिया पत्ती पड़ी है या फिर लहसुन, पता ही नहीं चलता। मां या पत्नी या बेटी ने नई ड्रेस पहनी और बहुत प्यारी लग रही है, मगर ठहरकर उनको देखने का सुख नहीं लपकते। पसंदीदा गाने के बोल खोजने की कौन कहे, अब तो गाने भी पूरा वक्त देकर नहीं सुने जाते। ड्राइव करते या काम करते हुए बैकग्राउंड के शोर की तरह गाने सुने जाते हैं। किताबें सिर्फ बीते बरसों या अधूरे सिलेबस की याद दिलाती हैं। मगर इन्हीं में छोटे-छोटे सुख छिपे हैं। इन्हीं से जुड़ी चीजों को करने में कभी बहुत लुत्फ आता था। हिम्मत न हारिए, बिसारिए न राम, सो अपने राम को आज से ही काम पर लगा दीजिए। कभी स्टोररूम से पुरानी मैगजीन निकालकर पलटिए या फिर एक दिन कॉपी का पिछला पन्ना फाड़कर किसी दूर के रिश्ते की बुआ या मास्टर बन चुके यार को खत लिख डालिए। हो सकता है कि दसियों बरस पहले बनाई गई अड्रेस बुक ढूंढने में वक्त लगे, मगर इस तरह से वक्त खर्चने का अलग मजा है।
इन छोटी चीजों के सुख में आदतों को सहलाना शामिल है तो सभ्यता को ठेंगा दिखाते हुए हाथ से चावल खाना भी। बस ऐसा कुछ जो अच्छा लगे, जिंदगी के पूरेपन का एहसास कराए।
खुद की मुहब्बत में पड़ गए
और अब इस बार की आखिरी बात। हमें सब प्यार करें, इससे पहले जरूरी है कि खुद हम खुद से प्यार करें। और खुद से प्यार करना उतना ही मुश्किल है, जितना बीवी को रिझाना या गर्लफ्रेंड से पहली बार दिल की बात कहना। खुद से प्यार तभी कर पाएंगे, जब खुद के सपनों के साथ ईमानदारी से पेश आएंगे। अपनी क्षमताओं के साथ इंसाफ करेंगे और अपने लिए सबसे ज्यादा सख्त बनेंगे। मगर जनाब सवाल सिर्फ सख्ती का नहीं है। खुद से प्यार करने के लिए खुद को छूना, महसूस करना और देखना भी जरूरी है। कभी सुबह ब्रश करते या शाम को कंघी करते हुए अचानक शीशे पर नजर ठहर जाती है और हम खुद की शक्ल को एक अलग ही ढंग से देखने लगते हैं। यह मैं हूं, ऐसा दिखता हूं, मेरी आवाज ऐसी है और दुनिया मुझे और मेरे काम को इस नाम के साथ जोड़ती है। या फिर ऐसा ही कोई पहली नजर में अजीब-सा लगता ख्याल। तो फिर जल्दी से शीशे के सामने से हटने के बजाय खुद को नजर भरकर देख लें। अपनी जरूरतों का, अपनी हेल्थ का और अपने स्वादों का ख्याल रखें, मगर ऐसे कि खुद से प्यार हो जाए, खुद पर दुलार बढ़ जाए।
नए साल में क्या कर सकते हैं, यह तो आप ही बेहतर जानते हैं। चलते-चलते सिर्फ इतना ही कि जेनरेशन एक्स, वाई, जेड के लोग अपनों से छोटों और बड़ों की बातों को हमेशा खारिज करने के बजाय समझने की कोशिश जरूर करें। और हां, नए दौर के लोग खासतौर पर अपने विचारों को कुछ वक्त के लिए ही सही, साइड पॉकेट में रखकर बुजुर्गों की सुन लें, क्योंकि जो उनके पास है वह कहीं नहीं। किसी कवि की इन पंक्तियों के साथ आप सबको हैपी जिंदगी का नया साल मुबारक हो।
संभावनाओं से लबालब भरा हुआ ये साल यदि बस में होता मेरे तो बांध देता इसे मां के पल्लू से और फिर रोज मांगते उससे एक खनकता हुआ दिन


आप अपनी गाड़ी की सही वक्त पर सर्विसिंग कराते हैं। हर संडे उसकी धुलाई करते, चमकाते हैं। लेकिन क्या आप अ पनी कार के टायरों का भी उतना ही ध्यान रखते हैं? इस हफ्ते ऑटो गाइड में टायर की एबीसी समझा रहे हैं शिवेंद्र सिंह चौहान
इंजन के बाद टायरों को कार का सबसे अहम हिस्सा माना जाए तो गलत नहीं होगा क्योंकि सड़क और गाड़ी के बीच का रिश्ता टायरों पर ही निर्भर होता है। कार का माइलेज, हैंडलिंग, बैलेंस और कंट्रोल जैसी कई चीजें काफी हद तक टायरों पर निर्भर होती हैं। इसलिए यह जरूरी है कि आप अपनी कार के लिए सही टायरों का ही चुनाव करें।
टायर की कुंडली टायर की साइडवॉल पर एक कोड लिखा होता है। टायर के बारे में सारी जानकारी इसी कोड में होती है। मसलन, टायर पर लिखा है P205/65 R 16 95 S तो इसमें P का मतलब है पैसेंजर कार टायर। 205 टायर की चौड़ाई (मिमी में), 65 इसका आस्पेक्ट रेश्यो यानी टायर की चौड़ाई और ऊंचाई का अनुपात। R यानी रेडियल और 16 रिम का डायमीटर यानी व्यास बताता है। यहां 95 लोड इंडेक्स है, जो बताता है कि टायर अधिकतम कितना वजन उठा सकता है। लोड इंडेक्स की स्केल देखने से पता चलता है कि 96 रेटिंग का टायर 690 किलो वजन के लिए बना है। अंत में S यानी टायर की स्पीड रेटिंग। हर टायर के लिए स्पीड की मैक्सिमम लिमिट होती है। इसके लिए A1 से लेकर Y तक रेटिंग दी जाती है। A1 रेटिंग वाले टायर 5 किमी प्रति घंटा और Y रेटिंग वाले टायर 300 किमी प्रति घंटा की अधिकतम रफ्तार पर चल सकते हैं। इस रफ्तार से ज्यादा तेज चलाने पर टायर खराब हो सकता है।
किस्म-किस्म के टायर आमतौर पर टायर दो तरह के होते हैं - ट्यूब टायर और ट्यूबलेस टायर। ज्यादातर छोटी गाडि़यों में कार कंपनियां ट्यूब टायर लगाकर देती हैं। प्रीमियम कारों और छोटी कारों के टॉप-एंड मॉडल्स में ट्यूबलेस टायर ज्यादा दिखते हैं। ट्यूब टायर आमतौर पर ट्यूबलेस टायरों से कम कीमत के होते हैं लेकिन ट्यूब और टायर के बीच होने वाले फ्रिक्शन की वजह से ये टायर जल्दी गर्म होते हैं और इसीलिए पंक्चर भी जल्दी होते हैं। इनके मुकाबले ट्यूबलेस टायर के कई फायदे होते हैं। मसलन, ट्यूबलेस टायर से सड़क पर बेहतर ग्रिप और कंट्रोल मिलता है और खुदा-न-खास्ता टायर पंक्चर हो जाए तो इसमें से हवा धीरे-धीरे निकलती है। आम धारणा है कि ट्यूबलेस टायर्स अलॉय वील्स पर ही लगाने चाहिए लेकिन यह सही नहीं है। स्टील रिम पर भी ट्यूबलेस टायर्स अच्छी परफॉमेंर्स देते हैं। कीमत के लिहाज से ट््यूबलेस टायर ट्यूब टायर से 300-400 रुपये ही महंगा है।
टायर कब बदलें ज्यादातर टायर बनाने वाली कंपनियां 40 हजार किलोमीटर चलने के बाद टायर बदलने की सलाह देती हैं। लेकिन टायर अच्छी हालत में हैं तो आप इन्हें 50 हजार किलोमीटर तक आराम से चला सकते हैं। इससे ज्यादा दूरी पर पुराने टायर से काम चलाना सेफ्टी के लिहाज से सही नहीं है। नियमों के मुताबिक, ट्रेड (टायर पर बने खांचे) की गहराई 1/6 मिमी रह जाए तो टायर बदल दिया जाना चाहिए। जिन लोगों की गाडि़यां काफी कम चलती हैं, उन्हें भी पांच साल के बाद हर साल टायरों का चेकअप कराना चाहिए। 10 साल से पुराने टायर इस्तेमाल नहीं करने चाहिए, चाहे वे जितना भी कम चले हों।
- हर टायर की अपनी उम्र होती है और सेफ्टी के लिहाज से यह जरूरी है कि उसे सही समय पर बदल दिया जाए। टायर कट या फट जाए, किसी एक जगह पर ज्यादा घिस जाए, रिपेयर न हो सकने लायक पंक्चर हो जाए या फिर जल्दी-जल्दी पंक्चर होने लगे, तो उसे बदल देना चाहिए।
टायर की देखरेख महीने में एक बार टायर प्रेशर जरूर चेक कराएं। टायरों में हवा उतनी ही रखें जितनी कार कंपनी ने रेकमेंड की हो। ज्यादा या कम हवा भराने से टायर जल्दी घिसेंगे। कंपनियां यह भी बताती हैं कि कम लोड और फुल लोड पर टायर प्रेशर कितना होना चाहिए। यह भी ध्यान रखें कि स्पेयर टायर में भी एयर प्रेशर हमेशा सही हो। हर 5000 किलोमीटर पर वील रोटेशन और अलाइनमेंट करा लने से टायर की लाइफ बढ़ जाएगी। टायरों के ट्रेड में फंसे कंकड़-पत्थर, कील-कांटे भी समय-समय पर निकालें। पेट्रोलियम बेस्ड डिटरजेंट या केमिकल क्लीनर से टायरों की सफाई न करें।
अपसाइजिंग कई बार सड़कों पर ऐसी गाड़ियां नजर आती हैं, जिनमें काफी चौड़े टायर लगे होते हैं। चौड़े और मोटे टायर लगाने से गाड़ी का लुक काफी स्पोटीर् हो जाता है और सड़क पर ग्रिप बेहतर हो जाती है, लेकिन इससे गाड़ी के माइलेज पर असर पड़ता है। ज्यादातर कार कंपनियां अपसाइजिंग की सलाह नहीं देतीं। उनका तर्क यह होता है कि गाड़ी में ऑरिजिनली उसी साइज के टायर लगाए जाते हैं जो उसके लिए परफेक्ट हों। इसलिए अपसाइजिंग से पहले एक्सपर्ट की सलाह जरूर लें। ज्यादातर टायर कंपनियों की वेबसाइट पर आपको अपसाइजिंग गाइड मिल जाएगी।
टायर कैसे खरीदें भारत में ज्यादातर कारों के टायर (लग्जरी और एसयूवी कैटिगरी को छोड़कर) की कीमत 1500 रुपये से 4000 रुपये के बीच है। टायरों के दाम सीजन के हिसाब से घटते-बढ़ते रहते हैं। टायरों की कीमत में मोलभाव की काफी गुंजाइश होती है, इसलिए माकेर्ट का सवेर् करें और अलग-अलग कंपनियों के टायर देखें, फिर अपनी जरूरत के हिसाब से टायर चुनें। टायर हमेशा ऑथराइज्ड डीलर से ही खरीदें और पक्का बिल जरूर लें। इससे टायर में दिक्कत आने पर उसे बदलने में सहूलियत रहेगी। टायर खरीदते समय ध्यान रखें कि उनकी मैन्युफैक्चरिंग डेट ज्यादा पहले की न हो। एक साल से पहले बने टायर हरगिज न खरीदें। इधर बाजार में चीन के बने टायर भी काफी दिख रहे हैं। उनके लुक्स पर न जाएं और वॉरंटी वाले टायर ही खरीदें।


प्रॉपर्टी की खरीदारी आज इतना महंगा सौदा हो चुका है कि इसे अकेले दम पर खरीदना आसान काम नहीं रहा। ऐसे में कई लोग मिलकर भी प्रॉपर्टी खरीद सकते हैं। हालांकि इस दौर में आपको इसके तमाम कानूनी पहलुओं के बारे में भी जानकारी जरूर रखनी चाहिए।
अगर किसी प्रॉपर्टी का मालिकाना हक एक से ज्यादा व्यक्तियों के नाम हो, तो इसे 'जॉइंट ओनरशिप' या साझा मालिकाना हक कहते हैं। पैतृक संपत्ति में बेटे व बेटियों का साझा व समान हिस्सा होता है। किसी भी प्रॉपर्टी का कोई को-ओनर प्रॉपर्टी में अपनी हिस्सेदारी किसी अजनबी या दूसरे को-ओनर के नाम हस्तांतरित कर सकता है। यह हस्तांतरण पाने वाला व्यक्ति प्रॉपर्टी का को-ओनर हो जाता है। बंटवारे के जरिए को-ओनरशिप को इकलौते मालिकाना हक में भी तब्दील किया जा सकता है। अगर किसी प्रॉपर्टी में किसी का शेयर है, तो इसका मतलब हुआ कि उस प्रॉपर्टी की जॉइंट ओनरशिप है। को-ओनर के पास प्रॉपर्टी पर कब्जे का अधिकार, उसका इस्तेमाल करने का अधिकार और यहां तक कि उसे बेचने तक का अधिकार होता है।
टेनेंट्स-इन-कॉमन 'टेनेंट्स-इन-कॉमन' को-ओनरशिप का एक प्रकार है, लेकिन इस तरह की को-ओनरशिप के बारे में कानूनी दस्तावेजों में स्पष्ट तौर पर कुछ नहीं बताया गया है। पूरी प्रॉपर्टी में प्रत्येक टेनेंट-इन-कॉमन का अलग-अलग हित होता है। अलग-अलग हित होने के बावजूद प्रत्येक टेनेंट-इन-कॉमन के पास यह अधिकार होता है कि वह पूरी प्रॉपर्टी का पजेशन रख सकता है या उसे इस्तेमाल कर सकता है। यह जरूरी नहीं है कि पूरी प्रॉपर्टी में प्रत्येक टेनेंट-इन-कॉमन का अलग-अलग, लेकिन बराबर हित हो। पूरी प्रॉपर्टी में उनके हित एक-दूसरे से कम या ज्यादा भी हो सकते हैं। उन सभी के पास अपने-अपने हित किसी दूसरे के नाम हस्तांतरण करने का भी अधिकार होता है, लेकिन उनके पास सर्वाइवरशिप का अधिकार नहीं होता। ऐसे में किसी टेनेंट-इन-कॉमन की मौत के बाद उनका हित या तो वसीयत या फिर कानून के मुताबिक हस्तांतरित होता है। जिस व्यक्ति के नाम यह हस्तांतरण होता है, वह को-ओनर्स के साथ टेनेंट-इन-कॉमन बन जाता है।
जॉइट टेनेंसी 'जॉइंट टेनेंसी' में सर्वाइवरशिप का अधिकार होता है। किसी जॉइट टेनेंट की मौत के बाद, प्रॉपर्टी में उनका हित तत्काल बाकी जीवित बचे जॉयंट टेनेंट्स के नाम हस्तांतरित हो जाता है। जॉयंट टेनेंट्स पूरी प्रॉपर्टी में एक एकीकृत हित के अधिकारी होते हैं। प्रत्येक जॉइंट टेनेंट का प्रॉपर्टी में बराबर का हिस्सा होना चाहिए। प्रत्येक जॉइंट टेनेंट पूरी प्रॉपर्टी का कब्जा रख सकता है, बशर्ते इससे दूसरे जॉइंट टेनेंट के अधिकारों का हनन नहीं होता हो। जॉइंट टेनेंसी हासिल करने के लिए कई शर्तें पूरी करनी होती हैं। जॉइंट टेनेंट्स के हित अलग-अलग नहीं हो सकते और वे अपने-अपने हित एक ही तरीके से भुना सकते हैं। जॉइंट टेनेंसी वसीयत या डीड के जरिए बहाल कराई जा सकती है।
को-ओनरशिप इस तरह की को-ओनरशिप खासकर पति-पत्नी के लिए है, क्योंकि इसमें सर्वाइवरशिप का अधिकार हासिल है। यानी किसी एक की मौत के बाद प्रॉपर्टी का हित अपने आप दूसरे जीवित बचे ओनर के पास हस्तांतरित हो जाता है। इस तरह की ओनरशिप के तहत पति या पत्नी में से किसी को भी अपने हित किसी तीसरे पक्ष को हस्तांतरित करने का अधिकार नहीं है। हालांकि पति या पत्नी आपस में यह हस्तांतरण कर सकते हैं। इस तरह की टेनेंसी तलाक, पति-पत्नी में से किसी की मौत या फिर पति-पत्नी के बीच आपसी करार के जरिए ही खत्म की जा सकती है।
ट्रांसफर ऑफ प्रॉपटीर् एक्ट, 1882 की धारा 44 में किसी को-ओनर द्वारा अपने अधिकार हस्तांतरित किए जाने से संबंधित नियमों का उल्लेख किया गया है। इसके मुताबिक, किसी अचल संपत्ति का को-ओनर कानूनी तौर पर संपत्ति में अपनी हिस्सेदारी हस्तांतरित कर सकता है। यह हस्तांतरण पाने वाले व्यक्ति के पास हस्तांतरण करने वाले के सारे अधिकार आ जाते हैं और वह प्रॉपर्टी के बंटवारे की मांग भी कर सकता है।

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